Shivyog - What is the meaning of avdhoot ( अवधूत का अर्थ क्या होता है )

अवधूत का क्या अर्थ है?
अवधूत बड़ा महत्वपूर्ण शब्द है।
उसका अर्थ ऐसा है:
अ का अर्थ है--अक्षरत्व को उपलब्ध कर लेना; जो कभी मिटे नहीं;जो सदा है।





क्षण-भंगुर है संसार! यह क्षर है! अक्षर है परमात्मा। क्षण-भंगुर को छोड़कर शाश्वत की डोर पकड़ लेनी। शाश्वत का आंचल जिसके हाथ में आ गया, वही अवधूत। यह अवधूत के अ का अर्थ है।
हम तो पकड़े हैं--पानी के बुदबुदों को; पकड़ भी नहीं पाते कि फूट जाते हैं। हम तो दौड़ते हैं मृग-मरीचिका के पीछे। बार-बार हारते हैं, फिर-फिर उठते हैं, फिर-फिर दौड़ते हैं। हम अपनी हारों से कुछ सीखते नहीं। क्षण-भंगुर का भ्रम हम पर बहुत गहरा है।
माया से जो जागे--क्षण की माया से जो जागे, वही अवधूत। यह पहला अर्थ।
व  अक्षर का अर्थ है जो वरण करे अक्षर को--बात ही न करे। जो अक्षर को सोचे ही नहीं--जिये। जो अमृत को चिन्मय में नहीं--जीवन में जाने। जिसकी श्वास-श्वास में अक्षर का वरण हो जाए। पंडित न बन जाए, प्रज्ञावान बने।
यह दूसरों की उधार बात न हो--कि अक्षर है। यह अपना निज अनुभव हो; यह स्व-अनुभूति हो।अंग्रेज़ी में हम letter शब्द कॉ प्रयोग करते है! यह शब्द अर्थ हीन है! हिन्दी में वर्णमाला के स्वर और व्यंजन के लिए अक्षर शब्द कॉ प्रयोग करते है! अक्षर कॉ अर्थ है जो नश्वर नहीं है ! शब्द तो नश्वर है जब शब्द विलीन हो जॉतॉ है तो भी अक्षर बॉकी रहतॉ है! अक्षर अनश्वर है और शब्द उससे मिलने वॉलॉ अनुभव!




परमात्मा की बात तो हम बहुत करते हैं! परमात्मा पर किताबें लिखी जाती हैं, लेकिन जो बड़ी बड़ी किताबें भी लिखते हैं परमात्मा पर, उनके जीवन में भी खोज कर परमात्मा की किरण शायद ही मिले।
परमात्मा का सिद्धांत मनोरम है, और उस सिद्धांत में बड़ी सुविधाएं हैं, और उस सिद्धांत को फैलाने के लिए काफी उपाय हैं। लेकिन अनुभव? अनुभव महंगी बात है; सिद्धांत सस्ती बात है।
परमात्मा को वरण तो वही करे, जो अपने को मिटाने को राजी हो। कहा कबीर ने--घर फूंकै जो आपना, चलै हमारे साथ। जिसकी तैयारी हो, आपने को राख कर लेने की, वही उसे वरण करे। उसके वरण करने में अहंकार का त्याग समाविष्ट है। छोड़ोगे अपने को, तो उसे पा सकोगे।
इसलिए अवधूत का दूसरा अर्थ है: अक्षर की बात ही न करे, अक्षर जिसके रोयें-रोयें में, श्वास-श्वास में समाया हो; अक्षर जिसकी सुगंध हो गया हो, जिसके जीवन का छंद हो गया हो।
धू का अर्थ है: संसार को धूल समझे, असार समझे, ना-कुछ समझे। और यह समझ ऊपर-ऊपर न हो। यह समझ ऐसी न हो कि समझे तो ऊपर-ऊपर कि धूल है और भीतर-भीतर धूल को पकड़े। यह समझ वस्तुतः हो। यह परिधि से लेकर केंद्र तक फैल जाए। यह प्राणों के प्राण में समाविष्ट हो जाए।
यह समझ जागने में रहे; उठने-बैठने में रहे; मंदिर में रहे, बाजार में रहे; हर घड़ी रहे। यह तुम्हारी छाया की तरह हो जाए--कि संसार धूल है।
यह अवधूत का तीसरा अर्थ है। और स्वभावतः जो जानेगा कि परमात्मा सत्य है, वह जान ही लेगा कि संसार धूल है। ये दोनों बातें एक साथ घटती हैं। ये एक ही सिक्के के दो पहलू हैं।
तो संसार को धूल समझे--वह अवधूत।
और चौथा अर्थ है: तत्वमसि का अर्थ है--तत्वमकस। जो ऐसा ही न समझे कि मैंने परमात्मा को जाना, जो ऐसा ही न समझे कि मैं परमात्मा को जीता हूं, जो ऐसा ही न समझे कि मैं परमात्मा हूं, बल्कि समझे कि सभी--प्रत्येक परमात्मा है। जो प्रत्येक को कह सके कि तुम भी वही हो।
नहीं तो परमात्मा का अनुभव भी बड़ा अहंकार का आधार बन सकता है। मैं कहूं कि मैं परमात्मा हूं, तुम परमात्मा नहीं हो, तो यह खबर होगी कि मैं अवधूत नहीं। जो कहे: मैं परमात्मा हूं और दूसरा परमात्मा नहीं, उसे कुछ भी नहीं दिखा; उसकी आंखें अंधी हैं; उसके कान बहरे हैं। उसने न सुना है, न देखा है। उसने परमात्मा के सहारे अपने अहंकार की यात्रा शुरू कर दी है।
तो अवधूत का चौथा अर्थ है--तत्वमसि --तुम भी वही हो। और तुममें--ध्यान रहे--सब समाविष्ट है; पत्थर-पहाड़, वृक्ष-पौधे-पक्षी, स्त्री-पुरुष सब समाविष्ट है। यह जो त्वम् है, यह जो तू है, इस तू में मुझसे अतिरिक्त सब समाविष्ट है। यह जो त्वम् है, यह जो तू है, इस तू में मुझसे अतिरिक्त सब समाविष्ट है।
तो मैं परमात्मा हूं--ऐसा जो जाने और साथ ही ऐसा भी जाने कि परमात्मा के अतिरिक्त और कुछ भी नहीं है--ऐसी चित्त-दशा का नाम है अवधूत। यह शब्द बड़ा प्यारा है।

Search This Blog